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देवता: उषाः ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

उ꣣त꣡ सखा꣢꣯स्य꣣श्वि꣡नो꣢रु꣣त꣢ मा꣣ता꣡ गवा꣢꣯मसि । उ꣣तो꣢षो꣣ व꣡स्व꣢ ईशिषे ॥१७२७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

उत सखास्यश्विनोरुत माता गवामसि । उतोषो वस्व ईशिषे ॥१७२७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣣त꣢ । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣣ । असि । अश्वि꣡नोः꣢꣯ । उ꣣त꣢ । मा꣣ता꣢ । ग꣡वा꣢꣯म् । अ꣣सि । उ꣣त꣢ । उ꣣षः । व꣡स्वः꣢꣯ । ई꣣शिषे ॥१७२७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1727 | (कौथोम) 8 » 3 » 6 » 3 | (रानायाणीय) 19 » 2 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर प्राकृतिक और दिव्य उषा वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—प्राकृतिक उषा के पक्ष में। (उत) और, हे (उषः) उषा ! तू (अश्विनोः) द्यावापृथिवी की (सखा) सहचरी (असि) है (उत) और (गवाम्) किरणों की (माता) माता (असि) है। (उत) और, तू (वस्वः) प्रकाशरूप धन की (ईशिषे) अधीश्वरी है ॥ द्वितीय—दिव्य उषा के पक्ष में। (उत) और, हे (उषः) उषा के समान वर्तमान ऋतम्भरा प्रज्ञा ! तू (अश्विनोः) योगी के आत्मा और मन की (सखा) सहचरी (असि) है, (उत) और (गवाम्) ईश्वरीय प्रकाशों की (माता) माता (असि) है। (उत) और तू (वस्वः) योग-समाधि रूप धन की (ईशिषे) अधिष्ठात्री है ॥३॥ यहाँ श्लेष अलङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे प्राकृतिक उषा द्यावापृथिवी में व्याप्त होकर ज्योतिरूप धन से सबको धनवान् कर देती है, वैसे ही योगमार्ग में ऋतम्भरा प्रज्ञा आत्मा और मन में व्याप्त होकर योगसिद्धियों के धन से योगियों को कृतार्थ करती है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि प्राकृतिकीं दिव्यां चोषसं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—प्राकृतिक्या उषसः पक्षे। (उत) अथ, हे (उषः) प्रभातकान्ते ! त्वम् (अश्विनोः) द्यावापृथिव्योः (सखा) सहचारिणी (असि) वर्तसे, (उत) अपि च (गवाम्) किरणानाम् (माता) जननी (असि) वर्तसे। (उत) अपि च, त्वम् (वस्वः) प्रकाशरूपस्य धनस्य (ईशिषे) अधीश्वरी विद्यसे ॥ द्वितीयः—दिव्याया उषसः पक्षे। (उत) अथापि, हे (उषः) उषर्वद् विद्यमाने ऋतम्भरे प्रज्ञे त्वम् (अश्विनोः) योगिनः आत्ममनसोः (सखा) सहचारिणी (असि) विद्यसे, (उत) अपि च (गवाम्) ईश्वरीयप्रकाशानाम् (माता) जननी (असि) विद्यसे। (उत) अपि च, त्वम् (वस्वः) योगसमाधिरूपस्य धनस्य (ईशिषे) अधिष्ठात्री वर्तसे ॥३॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा प्राकृतिक्युषा द्यावापृथिव्यावभिव्याप्य ज्योतिर्धनेन सर्वान् धनवतः करोति तथैव योगमार्गे ऋतम्भरा प्रज्ञाऽऽत्ममनसी अभिव्याप्य योगसिद्धिधनेन योगिनः कृतार्थयति ॥३॥